गुरुवार, 12 मई 2016

विद्वत्ता का घमंड


महाकवि कालिदास के कंठ में साक्षात सरस्वती का वास था. शास्त्रार्थ में उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता था. अपार यश, प्रतिष्ठा और सम्मान पाकर एक बार कालिदास को अपनी विद्वत्ता का घमंड हो गया.

उन्हें लगा कि उन्होंने विश्व का सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया है और अब सीखने को कुछ बाकी नहीं बचा. उनसे बड़ा ज्ञानी संसार में कोई दूसरा नहीं. एक बार पड़ोसी राज्य से शास्त्रार्थ का निमंत्रण पाकर कालिदास विक्रमादित्य से अनुमति लेकर अपने घोड़े पर रवाना हुए.

गर्मी का मौसम था. धूप काफी तेज़ और लगातार यात्रा से कालिदास को प्यास लग आई. थोङी तलाश करने पर उन्हें एक टूटी झोपड़ी दिखाई दी. पानी की आशा में वह उस ओर बढ चले. झोपड़ी के सामने एक कुआं भी था.

कालिदास ने सोचा कि कोई झोपड़ी में हो तो उससे पानी देने का अनुरोध किया जाए. उसी समय झोपड़ी से एक छोटी बच्ची मटका लेकर निकली. बच्ची ने कुएं से पानी भरा और वहां से जाने लगी.

कालिदास उसके पास जाकर बोले- बालिके ! बहुत प्यास लगी है ज़रा पानी पिला दे. बच्ची ने पूछा- आप कौन हैं ? मैं आपको जानती भी नहीं, पहले अपना परिचय दीजिए. कालिदास को लगा कि मुझे कौन नहीं जानता भला, मुझे परिचय देने की क्या आवश्यकता ?

फिर भी प्यास से बेहाल थे तो बोले- बालिके अभी तुम छोटी हो. इसलिए मुझे नहीं जानती. घर में कोई बड़ा हो तो उसको भेजो. वह मुझे देखते ही पहचान लेगा. मेरा बहुत नाम और सम्मान है दूर-दूर तक. मैं बहुत विद्वान व्यक्ति हूं.

कालिदास के बड़बोलेपन और घमंड भरे वचनों से अप्रभावित बालिका बोली-आप असत्य कह रहे हैं. संसार में सिर्फ दो ही बलवान हैं और उन दोनों को मैं जानती हूं. अपनी प्यास बुझाना चाहते हैं तो उन दोनों का नाम बाताएं ?

थोङा सोचकर कालिदास बोले- मुझे नहीं पता, तुम ही बता दो मगर मुझे पानी पिला दो. मेरा गला सूख रहा है. बालिका बोली- दो बलवान हैं ‘अन्न’ और ‘जल’. भूख और प्यास में इतनी शक्ति है कि बड़े से बड़े बलवान को भी झुका दें. देखिए प्यास ने आपकी क्या हालत बना दी है.

कलिदास चकित रह गए. लड़की का तर्क अकाट्य था. बड़े-बड़े विद्वानों को पराजित कर चुके कालिदास एक बच्ची के सामने निरुत्तर खङे थे. बालिका ने पुनः पूछा- सत्य बताएं, कौन हैं आप ? वह चलने की तैयारी में थी.

कालिदास थोड़ा नम्र होकर बोले-बालिके ! मैं बटोही हूं. मुस्कुराते हुए बच्ची बोली- आप अभी भी झूठ बोल रहे हैं. संसार में दो ही बटोही हैं. उन दोनों को मैं जानती हूं, बताइए वे दोनों कौन हैं ? तेज़ प्यास ने पहले ही कालिदास की बुद्धि क्षीण कर दी थी पर लाचार होकर उन्होंने फिर से अनभिज्ञता व्यक्त कर दी.

बच्ची बोली- आप स्वयं को बङा विद्वान बता रहे हैं और ये भी नहीं जानते ? एक स्थान से दूसरे स्थान तक बिना थके जाने वाला बटोही कहलाता है. बटोही दो ही हैं, एक चंद्रमा और दूसरा सूर्य जो बिना थके चलते रहते हैं. आप तो थक गए हैं. भूख प्यास से बेदम हैं. आप कैसे बटोही हो सकते हैं ?

इतना कहकर बालिका ने पानी से भरा मटका उठाया और झोपड़ी के भीतर चली गई. अब तो कालिदास और भी दुखी हो गए. इतने अपमानित वे जीवन में कभी नहीं हुए. प्यास से शरीर की शक्ति घट रही थी. दिमाग़ चकरा रहा था. उन्होंने आशा से झोपड़ी की तरफ़ देखा. तभी अंदर से एक वृद्ध स्त्री निकली.

उसके हाथ में खाली मटका था. वह कुएं से पानी भरने लगी. अब तक काफी विनम्र हो चुके कालिदास बोले- माते पानी पिला दीजिए बङा पुण्य होगा.

स्त्री बोली- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो. मैं अवश्य पानी पिला दूंगी. कालिदास ने कहा- मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें. स्त्री बोली- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं. पहला धन और दूसरा यौवन. इन्हें जाने में समय नहीं लगता. सत्य बताओ कौन हो तुम ?

अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश कालिदास बोले- मैं सहनशील हूं. अब आप पानी पिला दें. स्त्री ने कहा- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं. पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है. उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है.

दूसरे, पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं. तुम सहनशील नहीं. सच बताओ तुम कौन हो ? कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले- मैं हठी हूं.

स्त्री बोली- फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं. सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ? पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके कालिदास ने कहा- फिर तो मैं मूर्ख ही हूं.

नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो. मूर्ख दो ही हैं. पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है.

कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे. वृद्धा ने कहा- उठो वत्स ! आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी. कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए.

माता ने कहा- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार. तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा.

कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े.
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सोमवार, 9 मई 2016

बगुला भगत


एक वन प्रदेश में एक बहुत बडा तालाब था। हर प्रकार के जीवों के लिए उसमें भोजन सामग्री होने के कारण वहां नाना प्रकार के जीव, पक्षी, मछलियां, कछुए और केकडे आदि वास करते थे। पास में ही बगुला रहता था, जिसे परिश्रम करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। उसकी आंखे भी कुछ कमजोर थीं। मछलियां पकडने के लिए तो मेहनत करनी पडती हैं, जो उसे खलती थी। इसलिए आलस्य के मारे वह प्रायः भूखा ही रहता। एक टांग पर खडा यही सोचता रहता कि क्या उपाय किया जाए कि बिना हाथ-पैर हिलाए रोज भोजन मिले। एक दिन उसे एक उपाय सूझा तो वह उसे आजमाने बैठ गया।
बगुला तालाब के किनारे खडा हो गया और लगा आंखों से आंसू बहाने। एक केकडे ने उसे आंसू बहाते देखा तो वह उसके निकट आया और पूछने लगा “मामा, क्या बात हैं भोजन के लिए मछलियों का शिकार करने की बजाय खडे आंसू बहा रहे हो?”
बगुले ने जोर की हिचकी ली और भर्राए गले से बोला “बेटे, बहुत कर लिया मछलियों का शिकार। अब मैं यह पाप कार्य और नहीं करुंगा। मेरी आत्मा जाग उठी हैं। इसलिए मैं निकट आई मछलियों को भी नहीं पकड रहा हूं। तुम तो देख ही रहे हो।”
केकडा बोला “मामा, शिकार नहीं करोगे, कुछ खाओगे नही तो मर नहीं जाओगे?”
बगुले ने एक और हिचकी ली “ऐसे जीवन का नष्ट होना ही अच्छा हैं बेटे, वैसे भी हम सबको जल्दी मरना ही हैं। मुझे ज्ञात हुआ हैं कि शीघ्र ही यहां बारह वर्ष लंबा सूखा पडेगा।”
बगुले ने केकडे को बताया कि यह बात उसे एक त्रिकालदर्शी महात्मा ने बताई हैं, जिसकी भविष्यवाणी कभी गलत नहीं होती। केकडे ने जाकर सबको बताया कि कैसे बगुले ने बलिदान व भक्ति का मार्ग अपना लिया हैं और सूखा पडने वाला हैं।
उस तालाब के सारे जीव मछलियां, कछुए, केकडे, बत्तखें व सारस आदि दौसे-दौडे बगुले के पास आए और बोले “भगत मामा, अब तुम ही हमें कोई बचाव का रास्ता बताओ। अपनी अक्ल लडाओ तुम तो महाज्ञानी बन ही गए ही गए हो।”
बगुले ने कुछ सोचकर बताया कि वहां से कुछ कोस दूर एक जलाशय हैं जिसमें पहाडी झरना बहकर गिरता हैं। वह कभी नहीं सूखता । यदि जलाशय के सब जीव वहां चले जाएं तो बचाव हो सकता हैं। अब समस्या यह थी कि वहां तक जाया कैसे जाएं? बगुले भगत ने यह समस्या भी सुलझा दी “मैं तुम्हें एक-एक करके अपनी पीठ पर बिठाकर वहां तक पहुंचाऊंगा क्योंकि अब मेरा सारा शेष जीवन दूसरों की सेवा करने में गुजरेगा।”
सभी जीवों ने गद्-गद् होकर ‘बगुला भगतजी की जै’ के नारे लगाए।
अब बगुला भगत के पौ-बारह हो गई। वह रोज एक जीव को अपनी पीठ पर बिठाकर ले जाता और कुछ दूर ले जाकर एक चट्टान के पास जाकर उसे उस पर पटककर मार डालता और खा जाता। कभी मूड हुआ तो भगतजी दो फेरे भी लगाते और दो जीवों को चट कर जाते तालाब में जानवरों की संख्या घटने लगी। चट्टान के पास मरे जीवों की हड्डियों का ढेर बढने लगा और भगतजी की सेहत बनने लगी। खा-खाकर वह खूब मोटे हो गए। मुख पर लाली आ गई और पंख चर्बी के तेज से चमकने लगे। उन्हें देखकर दूसरे जीव कहते “देखो, दूसरों की सेवा का फल और पुण्य भगतजी के शरीर को लग रहा हैं।”
बगुला भगत मन ही मन खूब हंसता। वह सोचता कि देखो दुनिया में कैसे-कैसे मूर्ख जीव भरे पडे हैं, जो सबका विश्वास कर लेते हैं। ऐसे मूर्खों की दुनिया में थोडी चालाकी से काम लिया जाए तो मजे ही मजे हैं। बिना हाथ-पैर हिलाए खूब दावत उडाई जा सकती हैं संसार से मूर्ख प्राणी कम करने का मौका मिलता हैं बैठे-बिठाए पेट भरने का जुगाड हो जाए तो सोचने का बहुत समय मिल जाता हैं।
बहुत दिन यही क्रम चला। एक दिन केकडे ने बगुले से कहा “मामा, तुमने इतने सारे जानवर यहां से वहां पहुंचा दिए, लेकिन मेरी बारी अभी तक नहीं आई।”
भगतजी बोले “बेटा, आज तेरा ही नंबर लगाते हैं, आजा मेरी पीठ पर बैठ जा।”
केकेडा खुश होकर बगुले की पीठ पर बैठ गया। जब वह चट्टान के निकट पहुंचा तो वहां हड्डियों का पहाड देखकर केकडे का माथा ठनका। वह हकलाया “यह हड्डियों का ढेर कैसा हैं? वह जलाशय कितनी दूर हैं, मामा?”
बगुला भगत ठां-ठां करके खुब हंसा और बोला “मूर्ख, वहां कोई जलाशय नहीं हैं। मैं एक- एक को पीठ पर बिठाकर यहां लाकर खाता रहता हूं। आज तु मरेगा।”
केकडा सारी बात समझ गया। वह सिहर उठा परन्तु उसने हिम्मत न हारी और तुरंत अपने जंबूर जैसे पंजो को आगे बढाकर उनसे दुष्ट बगुले की गर्दन दबा दी और तब तक दबाए रखी, जब तक उसके प्राण पखेरु न उड गए।
फिर केकेडा बगुले भगत का कटा सिर लेकर तालाब पर लौटा और सारे जीवों को सच्चाई बता दी कि कैसे दुष्ट बगुला भगत उन्हें धोखा देता रहा।
सीखः .

  1. दूसरो की बातों पर आंखे मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए।
  2. मुसीबत में धीरज व बुद्धिमानी से कार्य करना चाहिए।

सोमवार, 2 मई 2016

बडे नाम का चमत्कार


एक समय की बात है एक वन में हाथियों का एक झुंड रहता था। उस झुंड का सरदार चतुर्दंत नामक एक विशाल, पराक्रमी, गंभीर व समझदार हाथी था। सब उसी की छत्र-छाया में शुख से रहते थे। वह सबकी समस्याएं सुनता। उनका हल निकालता, छोटे-बडे सबका बराबर ख्याल रखता था। एक बार उस क्षेत्र में भयंकर सूखा पडा। वर्षों पानी नहीं बरसा। सारे ताल-तलैया सूखने लगे। पेड-पौधे कुम्हला गए धरती फट गई, चारों और हाहाकार मच गई। हर प्राणी बूंद-बूंद के लिए तरसता गया। हाथियों ने अपने सरदार से कहा “सरदार, कोई उपाय सोचिए। हम सब प्यासे मर रहे हैं। हमारे बच्चे तडप रहे हैं।”
चतुर्दंत पहले ही सारी समस्या जानता था। सबके दुख समझता था पर उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या उपाय करे। सोचते-सोचते उसे बचपन की एक बात याद आई और चतुर्दंत ने कहा “मुझे ऐसा याद आता हैं कि मेरे दादाजी कहते थे, यहां से पूर्व दिशा में एक ताल हैं, जो भूमिगत जल से जुडे होने के कारण कभी नहीं सूखता। हमें वहां चलना चाहिए।” सभी को आशा की किरण नजर आई।
हाथियों का झुंड चतुर्दंत द्वारा बताई गई दिशा की ओर चल पडा। बिना पानी के दिन की गर्मी में सफर करना कठिन था, अतः हाथी रात को सफर करते। पांच रात्रि के बाद वे उस अनोखे ताल तक पहुंच गए। सचमुच ताल पानी से भरा था सारे हातियों ने खूब पानी पिया जी भरकर ताल में नहाए व डुबकियां लगाईं।
उसी क्षेत्र में खरगोशों की घनी आबादी थी। उनकी शामत आ गई। सैकडों खरगोश हाथियों के पैरों-तले कुचले गए। उनके बिल रौंदे गए। उनमें हाहाकार मच गया। बचे-कुचे खरगोशों ने एक आपातकालीन सभा की। एक खरगोश बोला “हमें यहां से भागना चाहिए।”
एक तेज स्वभाव वाला खरगोश भागने के हक में नहीं था। उसने कहा “हमें अक्ल से काम लेना चाहिए। हाथी अंधविश्वासी होते हैं। हम उन्हें कहेंगे कि हम चंद्रवंशी हैं। तुम्हारे द्वारा किए खरगोश संहार से हमारे देव चंद्रमा रुष्ट हैं। यदि तुम यहां से नहीं गए तो चंद्रदेव तुम्हें विनाश का श्राप देंगे।”
एक अन्य खरगोश ने उसका समर्थन किया “चतुर ठीक कहता हैं। उसकी बात हमें माननी चाहिए। लंबकर्ण खरगोश को हम अपना दूत बनाकर चतुर्दंत के पास भेंजेगे।” इस प्रस्ताव पर सब सहमत हो गए। लंबकर्ण एक बहुत चतुर खरगोश था। सारे खरगोश समाज में उसकी चतुराई की धाक थी। बातें बनाना भी उसे खूब आता था। बात से बात निकालते जाने में उसका जवाब नहीं था। जब खरगोशों ने उसे दूत बनकर जाने के लिए कहा तो वह तुरंत तैयार हो गया। खरगोशों पर आए संकट को दूर करके उसे प्रसन्नता ही होगी। लंबकर्ण खरगोश चतुर्दंत के पास पहुंचा और दूर से ही एक चट्टान पर चढकर बोला “गजनायक चतुर्दंत, मैं लंबकर्ण चन्द्रमा का दूत उनका संदेश लेकर आया हूं। चन्द्रमा हमारे स्वामी हैं।”
चतुर्दंत ने पूछा ” भई,क्या संदेश लाए हो तुम ?”
लंबकर्ण बोला “तुमने खरगोश समाज को बहुत हानि पहुंचाई हैं। चन्द्रदेव तुमसे बहुत रुष्ट हैं। इससे पहले कि वह तुम्हें श्राप देदें, तुम यहां से अपना झुंड लेकर चले जाओ।”
चतुर्दंत को विश्वास न हुआ। उसने कहा “चंद्रदेव कहां हैं? मैं खुद उनके दर्शन करना चाहता हूं।”
लंबकर्ण बोला “उचित हैं। चंद्रदेव असंख्य मॄत खरगोशों को श्रद्धांजलि देने स्वयं ताल में पधारकर बैठे हैं, आईए, उनसे साक्षात्कार कीजिए और स्वयं देख लीजिए कि वे कितने रुष्ट हैं।” चालाक लंबकर्ण चतुर्दंत को रात में ताल पर ले आया। उस रात पूर्णमासी थी। ताल में पूर्ण चंद्रमा का बिम्ब ऐसे पड रहा था जैसे शीशे में प्रतिबिम्ब दिखाई पडता हैं। चतुर्दंत घबरा गया चालाक खरगोश हाथी की घबराहट ताड गया और विश्वास के साथ बोला “गजनायक, जरा नजदीक से चंद्रदेव का साक्षात्कार करें तो आपको पता लगेगा कि आपके झुंड के इधर आने से हम खरगोशों पर क्या बीती हैं। अपने भक्तों का दुख देखकर हमारे चंद्रदेवजी के दिल पर क्या गुजर रही है|”
लंबकर्ण की बातों का गजराज पर जादू-सा असर हुआ। चतुर्दंत डरते-डरते पानी के निकट गया और सूंड चद्रंमा के प्रतिबिम्ब के निकट ले जाकर जांच करने लगा। सूंड पानी के निकट पहुंचने पर सूंड से निकली हवा से पानी में हलचल हुई और चद्रंमा ला प्रतिबिम्ब कई भागों में बंट गया और विकॄत हो गया। यह देखते ही चतुर्दंत के होश उड गए। वह हडबडाकर कई कदम पीछे हट गया। लंबकर्ण तो इसी बात की ताक में था। वह चीखा “देखा, आपको देखते ही चंद्रदेव कितने रुष्ट हो गए! वह क्रोध से कांप रहे हैं और गुस्से से फट रहे हैं। आप अपनी खैर चाहते हैं तो अपने झुंड के समेत यहां से शीघ्रातिशीघ्र प्रस्थान करें वर्ना चंद्रदेव पता नहीं क्या श्राप देदें।”
चतुर्दंत तुरंत अपने झुंड के पास लौट गया और सबको सलाह दी कि उनका यहां से तुरंत प्रस्थान करना ही उचित होगा। अपने सरदार के आदेश को मानकर हाथियों का झुंड लौट गया। खरगोशों में खुशी की लहर दौड गई। हाथियों के जाने के कुछ ही दिन पश्चात आकाश में बादल आए, वर्षा हुई और सारा जल संकट समाप्त हो गया। हाथियों को फिर कभी उस ओर आने की जरूरत ही नहीं पडी।
सीखः चतुराई से शारीरिक रुप से बलशाली शत्रु को भी मात दी जा सकती हैं।