सोमवार, 3 अगस्त 2015

साहस

श्रावस्ती क्षेत्र में उस वर्ष भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। अन्न के अभाव से असंख्यों को प्राण त्यागना पड़ा। आजीविका की खोज में अगणित लोग देश त्यागकर अन्यत्र चले गये।
प्रश्न उन माताओं का था जिनके बच्चे छोटे थे और घर के पुरुष या तो मर गये थे या अन्यत्र जा चुके थे। वे दयनीय स्थिति में मरण मुख में जा रही थीं।
बुद्ध से यह करुण दृश्य देखा न गया। उस क्षेत्र के साधन सम्पन्नों की उनने गोष्ठी बुलाई और इस अनाथ समुदाय की प्राण रक्षा का उपाय करने के लिए अनुरोध किया।
श्रीमन्तों के पास साधन तो थे पर थे इतने ही कि अपने परिवार का एक वर्ष तक निर्वाह कर सकें। उनमें से किसी ने भी व्यवस्था जुटाने की पहल करने का साहस न दिखाया। सभी सिर झुकाये बैठे थे।
स्तब्धता को चीरते हुए एक बारह वर्ष की कन्या उठी। उसने कहा- देव, आज्ञा दें तो मैं इस समुदाय के निर्वाह का उत्तरदायित्व उठाऊँ।
तथागत ने चकित होकर पूछा- वत्स तुम कौन हो? और किस प्रकार यह व्यवस्था कर सकोगी?
बालिका ने कहा- देव! मनुष्य कितना ही निष्ठुर क्यों न हो, उसके अन्तराल में कहीं न कहीं करुणा अवश्य छिपी रहती है। मैं उसी को जिनके घर चूल्हा जलेगा उन्हीं से आधी रोटी उन मरणासन्नों की स्थिति का परिचय कराकर ममता जगाऊँगी। आधी रोटी लेकर रहूँगी।
बुद्ध ने उसके शिर पर हाथ फिराया और कहा श्रीमन्तों से अधिक जन-भावना की सम्पन्नता अधिक है तुम उसे उभारने में सफल हो, ऐसा आशीर्वाद दिया।
सुचेता का वह व्रत एक वर्ष तक चला। वर्षा रहित दुर्भिक्ष दूर होने तक की इस अवधि में सुचेता ने एक सहस्र अनाश्रितों को नित्य भोजन कराने में श्रेय मात्र अपने पुरुषार्थ बल पर अर्जित किया।

शनिवार, 1 अगस्त 2015

अनमोल जमा-पूँजी

बहुत समय पहले की बात है एक विख्यात ऋषि
गुरुकुल में बालकों को शिक्षा प्रदान किया करते थे
. उनके गुरुकुल में बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के
पुत्रों से लेकर साधारण परिवार के लड़के भी पढ़ा
करते थे।
वर्षों से शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों की शिक्षा
आज पूर्ण हो रही थी और सभी बड़े उत्साह के
साथ अपने अपने घरों को लौटने की तैयारी कर रहे
थे कि तभी ऋषिवर की तेज आवाज सभी के कानो में
पड़ी ,
” आप सभी मैदान में एकत्रित हो जाएं। “
आदेश सुनते ही शिष्यों ने ऐसा ही किया।
ऋषिवर बोले , “ प्रिय शिष्यों , आज इस गुरुकुल में
आपका अंतिम दिन है . मैं चाहता हूँ कि यहाँ से
प्रस्थान करने से पहले आप सभी एक दौड़ में
हिस्सा लें .
यह एक बाधा दौड़ होगी और इसमें आपको कहीं
कूदना तो कहीं पानी में दौड़ना होगा और इसके
आखिरी हिस्से में आपको एक अँधेरी सुरंग से भी
गुजरना पड़ेगा .”
तो क्या आप सब तैयार हैं ?”
” हाँ , हम तैयार हैं ”, शिष्य एक स्वर में बोले .
दौड़ शुरू हुई .
सभी तेजी से भागने लगे . वे तमाम बाधाओं को पार
करते हुए अंत में सुरंग के पास पहुंचे . वहाँ बहुत
अँधेरा था और उसमे जगह – जगह नुकीले पत्थर
भी पड़े थे जिनके चुभने पर असहनीय पीड़ा का
अनुभव होता था .
सभी असमंजस में पड़ गए , जहाँ अभी तक दौड़ में
सभी एक सामान बर्ताव कर रहे थे वहीँ अब सभी
अलग -अलग व्यवहार करने लगे ; खैर , सभी ने
ऐसे-तैसे दौड़ ख़त्म की और ऋषिवर के समक्ष
एकत्रित हुए।
“पुत्रों ! मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोगों ने दौड़ बहुत
जल्दी पूरी कर ली और कुछ ने बहुत अधिक समय
लिया , भला ऐसा क्यों ?”, ऋषिवर ने प्रश्न
किया।
यह सुनकर एक शिष्य बोला , “ गुरु जी , हम सभी
लगभग साथ –साथ ही दौड़ रहे थे पर सुरंग में
पहुचते ही स्थिति बदल गयी …कोई दुसरे को
धक्का देकर आगे निकलने में लगा हुआ था तो
कोई संभल -संभल कर आगे बढ़ रहा था …और
कुछ तो ऐसे भी थे जो पैरों में चुभ रहे पत्थरों को
उठा -उठा कर अपनी जेब में रख ले रहे थे ताकि
बाद में आने वाले लोगों को पीड़ा ना सहनी पड़े….
इसलिए सब ने अलग-अलग समय में दौड़ पूरी की
.”
“ठीक है ! जिन लोगों ने पत्थर उठाये हैं वे आगे
आएं और मुझे वो पत्थर दिखाएँ “, ऋषिवर ने
आदेश दिया .
आदेश सुनते ही कुछ शिष्य सामने आये और
पत्थर निकालने लगे . पर ये क्या जिन्हे वे पत्थर
समझ रहे थे दरअसल वे बहुमूल्य हीरे थे . सभी
आश्चर्य में पड़ गए और ऋषिवर की तरफ देखने
लगे .
“ मैं जानता हूँ आप लोग इन हीरों के देखकर
आश्चर्य में पड़ गए हैं .” ऋषिवर बोले।
“ दरअसल इन्हे मैंने ही उस सुरंग में डाला था ,
और यह दूसरों के विषय में सोचने वालों शिष्यों को
मेरा इनाम है।
पुत्रों यह दौड़ जीवन की भागम -भाग को दर्शाती
है, जहाँ हर कोई कुछ न कुछ पाने के लिए भाग रहा
है . पर अंत में वही सबसे समृद्ध होता है जो इस
भागम -भाग में भी दूसरों के बारे में सोचने और
उनका भला करने से नहीं चूकता है .
अतः यहाँ से जाते -जाते इस बात को गाँठ बाँध
लीजिये कि आप अपने जीवन में सफलता की जो
इमारत खड़ी करें उसमे परोपकार की ईंटे लगान
कभी ना भूलें , अंततः वही आपकी सबसे अनमोल
जमा-पूँजी होगी ।